Read this article in Hindi to learn about the functions of human digestive system.

पाचन तंत्र, खाये गये भोजन के अवशोषण व पाचन में तथा खाने के बचे हुये अवशेषों को शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है । पाचन संस्थान एलीमेन्टरी कैनाल जो मुंह से लेकर गुदा तक होता हे से, तथा कुछ सहायक अंगों से मिलकर बनता है ।

मुंह और ग्रास नली:

मुंह या ओरल कैवटी को बाहरी वेस्टीब्यूल तथा अंदर के माउथ कैवटी प्रापर नामक दो भागों में बांटा जा सकता है । माउथ कैवटी प्रापर आगे तथा दोनों ओर दांतों व मसूढ़ों से घिरा होता है । पीछे की ओर यह ओरोफैरेन्जियल इस्थमस द्वारा कण्ठ में खुलता है । इस्थमस की बगल की सतह में दो म्यूकस मेम्ब्रेन के फोल्ड होते हैं जिनमें लिम्फोयड टिशू स्थित होता है तथा पैलेटाइन टांसिल कहलाता है ।

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मुंह की छत का निर्माण अस्थि पैलेट तथा पीछे की ओर साफ्ट पैलेट से होता है । इसका पिछला भाग उभरा हुआ होता है, जिसे युवला कहते हैं । जीभ का अगला भाग इसकी फ्लोर बनाता है । मायलोहायड पेशी मैण्डीबल की आर्चो के बीच पेशीय डायफ्राम बनाती है ।

ओठ दो मासल फोल्ड होते हैं जो मुंह के आगे के छेद के चारों ओर स्थित होते हैं । यह आर्बीकुलेरिस ओरिस पेशी से बने होते हैं जो बाहर से त्वचा से तथा अन्दर से म्यूकस मेम्ब्रेन द्वारा ढकी होती हैं । गाल मुंह के वेस्टिव्यूल की बगल की सतह बनाते हैं ।

वह आगे की ओर ओठों से जुड़े होते हैं तथा इनका निर्माण मुख्य रूप से बक्सीनेटर पेशी से होता है । जीभ एक पेशीय अंग है जिसका कुछ भाग मुंह तथा कण्ठ में स्थित होता है ।  यह स्वाद में, बोलने मे तथा निगलने में महत्वपूर्ण है । दांत मैक्सिला और मैण्डिबल के एल्विओलर प्रोसेस के साकेट में स्थित होते हें ।

दांत दो बार निकलते हैं । दूध के दांत व स्थायी दांत । दूध के दांत संख्या में 20 होते हैं तथा स्थायी दांत संख्या में 32 होते हैं । जिनमें दो इन्साइजर, 1 कैनाइन 2 प्रीमोलर तथा 3 मोलर प्रत्येक जबड़े के आधे भाग में होते है ।

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लार ग्रन्थियां:

पाचन तंत्र के अंतर्गत तीन जोड़े लार ग्रन्यियां पायी जाती हैं । ये पैरोटिड, सब-मैन्डिबुलर और सब-लिंगुअल हैं । इनको चित्र 3.34 में दर्शाया गया है । ये ग्रन्थियां लार का निर्माण करती हैं । जो इनकी नलिकाओं द्वारा मुंह में पहुंचती हैं । ग्रास नली लगभग 25 से॰मी॰ लम्बी होती है । यह ऊपर कण्ठ में तथा नीचे आमाशय में खुलती है ।

यह गरदन में छठीं सरवाइकल वर्टिब्रा से शुरू होती है जहां यह लैरिगोफैरिक्स में खुलती है । डायफ्राम से निकलने के बाद यह कार्डियक ओरिफिस के द्वारा 11 वीं थोरेसिक वर्टीब्रा के स्थान पर यह आमाशय में खुलती है । इस विभिन्न संबंधों को चित्र 3.35 में दर्शाया गया है ।

ग्रास नली का छिद्र पूरी लम्बाई में समान न होकर तीन स्थानों पर सिकुड़ा होता है जैसे इसके शुरू होने के स्थान पर, बांयी मुख्य श्वास नलिका से सम्पर्क के स्थान पर और डायफ्राम से निकलते समय ।

आमाशय:

यह पाचन नलिका का सबसे फैला हुआ भाग है (चित्र 3.36 क) । यह उदर के बायें हाइपोकान्ड्रीयम, इपीगेसट्रियम और अम्बलाइकल भागों में स्थित होता है । यह ऊपर की ओर कार्डियक ओरिफिस द्वारा ग्रास नली में तथा पायलोरिक छिद्र द्वारा ड्‌यूडीनम में खुलता है । पायलोरिक ओरिफिस अरेखीय पेशियों द्वारा चारों ओर से ढका रहता है जिसे पायलोरिक स्फिक्टर कहते हैं ।

 

 

कार्डियक ओरिफिस को डायफ्राम के दायें क्रस के तंतु दबाते हैं जिससे आमाशय में स्थित पदार्थ वापस ग्रास नली में नहीं जा पाते हैं । इसका आयतन एक सामान्य वयस्क में 1000-1500 सी॰ सी॰ होता है । यह मुख्य रूप से बेरियम मील पर ‘J’ के आकार का होता है । यद्यपि यह अन्य आकार का भी हो सकता है । (चित्र 3.36 ख)

आगे की ओर आमाशय डायफ्राम, बांयी कास्टल मार्जिन, यकृत का बांया लोब और उदर की अगली दीवार से सम्बन्धित होता है । पीछे की ओर यह डायफ्राम बांयी सुप्रा रीनल ग्रन्थि, बायें गुर्दे, पेन्क्रियाज, स्पलीनिक धमनी, ट्रांसवर्स मीजोकोलन (चित्र 3.37), ट्रांसवर्स कोलन का बांया भाग, कोलन का स्पलीनिक फ्लेक्सर और प्लीहा से सम्बन्धित होता है । इन भागों को प्राय :: स्टमक बेड कहा जाता है ।

छोटी आंत:

छोटी आंत की लम्बाई लगभग 6 मीटर होती है तथा ये आमाशय के पायलोरिक ओरिफिस से लेकर इलिओसीकल बाल्व द्वारा बड़ी आंत में खुलती है जिसे तीन भागों में बांटा जा सकता है ड्‌यूडीनम, ज्यूजेनम और इलियम ।

ड्यूडीनम लगभग 25 से॰मी॰ लम्बा होता है । यह छोटी आंत का सबसे छोटा व चौड़ा भाग है । यह पैन्क्रियाज के हेड के आसपास ‘C’ के आकार की टोपी बनाता है जिसे चार भागों में बांटा जा सकता है । इसके अन्य भागों से संबंधों को चित्र 3.38 में दिखाया गया हे ।

ज्यूजेनम और इलियम ड्‌यूडिनोज्यूजिनल फ्लेक्सर से इलियोसीकल वाल्व तक फैला होता है । यह पूरी तरह से पेरीटोनियम से घिरे होते हैं । ऊपरी ज्यूजेनम का 2/5 भाग अम्बलाइकल रीजन में रहने की कोशिश करता है, जबकि इलियम हाइपोगेस्ट्रिक रीजन और पेल्विक केवटी के उपरी भाग में । इलियम का अंतिम भाग इलयोसीकल वाल्व द्वारा सीकम में खुलता है ।

ज्यूजेनम के ऊपरी भाग तथा इलियम के अंतिम भाग की रचना में कुछ अंतर होता है । ज्यूर्जेनम का छिद्र इलियम की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है तथा इसकी म्यूकोसा गोलपर्तों में स्थित होती है जिसे बाल्वोली कान्वेटिंस कहते हैं । इन्टेसटीनल वीलाई छोटे तथा म्यूकस मेम्ब्रेन की सतह से उभरे होते हैं । इनकी संख्या डियोडिनम और ज्यूजेनम में इलियम की अपेक्षा अधिक होती है ।

बड़ी आंत:

बड़ी आंत लगभग 1.5 मीटर लम्बी होती है जो सीकम से गुदा तक होती है । इसका छिद्र छोटी आंत की अपेक्षा काफी बड़ा होता है तथा यह छोटी आंत के चारों ओर स्थित होती है । बनावट में यह सैकुलटेड या हास्ट्रायुक्त होता है । यह सीकम, कोलन, रेक्टम व एनल केनाल से बनी होती है जिसे चित्र 3.39 में दिखाया गया है ।

पैन्क्रियाज भूरापन लिये हुये गुलाबी रंग का होता है, जो आकार में लगभग 15 से॰मी॰ तथा हेड, नेक, बाडी व टेल से मिलकर बना होता है । हेडडियोडिनम की कैप से ढका रहता है, (चित्र 3.40) जबकि नेक बाडी उदर में दूसरा तरफ व इसकी टेल प्लीहा के पास स्थित होती है ।

कामन बाइलडक्ट पैन्क्रियाज के हैड के पीछे से होकर जाती है । पैन्क्रियाज के दो कार्य हैं । इन्होक्रीन व एक्सोक्रीन । इसमें कुछ एन्जाइम बनते हैं जो पैन्क्रियाटिक डक्ट के द्वारा डियोडिनम में पहुंचते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ अतिमहत्वपूर्ण हारमोनों का निर्माण लैगहैन्स कोशिकाओं द्वारा किया जाता है तथा वे सीधे रक्त में पहुंचते हैं । इनमें प्रमुख इन्सुलिन, ग्लूकागेन व सोमेटोस्टेटिन है ।

यकृत:

शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है जिसका वजन 1.5 किग्रा से अधिक होता है । यह उदर के ऊपरी भाग, दायें हाइपोकान्ड्रियम व इपीगैस्ट्रियम में स्थित होता है तथा यह बायें हाइपोकान्ड्रियम में भी फैला होता है । इसमें अगली, पिछली, ऊपरी, निचली और दांयी सतहें होती हैं ।

आगे व निचली सतहें नुकीली होती हैं, जबकि अन्य सतहें गौण होती हैं । यकृत को दो मुख्य लोबों में बांटा गया है और अन्य छोटे लोब क्वाड्रेट तथा कोडैट इसकी निचली सतह पर स्थित होते हैं । इसकी भिन्न सतह डायाफ्राम, ग्रासनली, उदरस्थ महाधमनी, इन्फीरियर वीनाकेवा, दायें गुर्दे, दांयी सुप्रारीनल ग्रन्थि, डियोडिनम, हिपेटिक फ्लैकसर, कोलन, पित्ताशय व आमाशय से संबंधित होती है ।

पाचन के सामान्य तथ्य:

पाचन नली से गुजरते समय भोजन पर, एन्जाइम क्रिया कर इसे रक्त द्वारा अवशोषित हो सकने वाले छोटे-छोटे कणों में तोड़ देता है । इस क्रिया को पाचन कहते हैं । भोजन के कुछ तत्व जैसे पानी, लवण, विटामिन व ग्लूकोज जैसे के तैसे छोटी आंत द्वारा अवशोषित हो जाते हैं । कुछ अन्य तत्व न तो पचते हैं और न अवशोषित होते हैं और इन पदार्थो को मल के रूप मे शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है ।

भोजन में तीन मुख्य तत्व होते हैं:

कार्बोहाइड्रेड, वसा तथा प्रोटीन ।

कार्बोहाइड्रेट:

ये शरीर को ऊर्जा प्रदान करने के मुख्य स्रोत हैं जो भोजन में मोनोसैक्राइड (ग्लूकोज व फ्रक्टोज) जो ज्यूजेनम व ऊपरी इलियम द्वारा अवशोषित हो जाते हैं, डाइसैक्राइड (दो मोनोसैक्राइड से मिलकर बनते हैं – सुक्रोज व लैक्टोज) और पालीसैक्राइड (कई मोनोसैक्राइड से मिलकर बनाते हैं -जैसे स्टार्च) के रूप में उपस्थित होता है ।

वसा:

वसा कार्बोहाइहेट की अपेक्षा दो गुनी ऊर्जा प्रदान करती है । वसा पाचन नली में पूर्णत: अवशोषित होने के लिए फैट्‌टी एसिड व ग्लिसरेल में तोड़ दी जाती है ।

वसा के दो मुख्य स्रोत है:

1. जानवर  |

2.वनस्पतियों ।

प्रोटीन:

शरीर की वृद्धि व टूट-फूट की मरम्मत के लिए आवश्यक है । इनका निर्माण एमीनो एसिड के मिलने से होता है । पाचन के दौरान ये पेप्टाइडों व एमिनो एसिड में तोड़ दिये जाते हैं । सामान्य स्वास्थ्य के लिए विटामिन आवश्यक है । इनकी आवश्यकता बहुत थोड़ी मात्रा में होती है पर इनका निर्माण शरीर में नहीं होता है ।

यह दो प्रकार के होते हैं । वसा में घुलनशील विटामिन-ए, डी, ई, व के तथा पानी में घुलनशील विटामिन बी व सी । इनमे से विटामिन बी कई विटामिनों का एक समूह है जो तन्त्रिका तन्त्र, त्वचा, इपीथीलियलाटिश्यू व सामान्य रक्त कणिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है ।

आवश्यक (ऐसेन्सियल) मिनरलों में सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फास्फोरस, सल्फर व आयोडीन प्रमुख हैं । पाचन की शुरुआत मुंह में भोजन के चबाने से शुरू होती है । भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ो में तोड़ दिया जाता है । जिसमें लार अच्छी तरह से मिल जाती है । सेलवरी ऐमाइलोज स्टार्च को माल्टोज में तोड़ने की शुरुआत करता है । इसके पश्चात भोजन को निगल लिया जाता है ।

आमाशय में पाचन:

निगलने के बाद भोजन इसाफेजियल निकास से होकर आमाशय के फन्डस वाले भाग में पहुंचता है, जहां से यह धीरे-धीरे आमाशय के बाडी वाले भाग में पहुँचता है । जब आमाशय खाली होता है तो इसकी दीवारें एक दूसरे के साथ स्थित होती है । गैस्टिक जूस प्रोटीन के पाचन की शुरुआत करते हैं ।

आमाशय में तीन प्रकार की ग्रन्थियां होती हैं:

(a) मुख्य गैस्ट्रिक ग्रन्थियां जो स्वयं तीन प्रकार की होती हैं, चीफ या पेप्टिक सेल जो पेपिटसनो जन का निर्माण करते हैं, पेराइटल या आक्जेन्टिक सेल जो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का निर्माण करते हैं और म्यूकस सेल क्षारीय म्यूकस का निर्माण करते हैं । मुख्य गैस्ट्रिक ग्रन्थियां इन्द्रिन्त्रिक फैक्टर का भी निर्माण करती है ।

(b) पाइलोरिक ग्रन्थियां मुख्य रूप से पाइलोरस में पायी जाती हैं और क्षारीय म्यूकस बनाती हैं ।

(c) कार्डियक ट्यूबुलर ग्रन्थियां मुख्यतया इसोफेजियल निकास के पास के गैसट्रिक म्यूकोसा में पायी जाती हैं ।

भोजन के आमाशय में पहुंचने के बाद आमाशय के बाडी व पाइलोरिक एन्ट्रम में पेरिस्टेल्सिस शुरू हो जाती है तथा कुछ समय पश्चात पायलोरिक सिन्फ़क्टर ढीला हो जाता है तथा पेरिस्टेल्सिस की हर तरंग के साथ थोड़ी मात्रा में द्रव पदार्थ डियोडिनम में चला जाता है । (चित्र 3.42) आमाशय सामान्यतया भोजन के पश्चात तीन या धार धण्टे में खाली हो जाता है । उल्टी आमाशय में पैरिस्टैल्सिस विपरीत दिशा में होने से होती है जिसमे आमाशय के पदार्थ ग्रासनली से होते हुए बाहर आ जाते है ।

गैस्ट्रिक जूस के कार्य:

(a) हाइड्रोक्लोरिक अम्ल पेट के पदार्थो को अम्लीय करता है जो भोजन के साथ पेट में पहुंचे बहुत सारे कीटाणुओं को नष्ट कर देता है ।

(b) पेप्सिन प्रोटीन के पाचन की शुरुआत इसे पेप्टोन व प्रोटीओज में तोड़कर करता है ।

(c) म्यूकस ग्रैस्ट्रिक म्यूकोसा के ऊपर एक सतह बनाता है जो क्षारीय होती है और म्यूकोसा की रक्षा पेप्सिन व हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से करती है ।

(d) इन्ट्रिन्सिक फैक्टर विटामिन बी – 12 से जुड़कर इलियम में अवशोषित हो जाता है ।

गैस्ट्रिक जूस के स्राव का नियंत्रण:

इसकी दो विधियां हैं: तंन्त्रिका तन्त्र द्वारा व ह्‌यूमोरल विधि द्वारा ।

तन्त्रिका तन्त्र द्वारा:

भोजन का दर्शन, गन्ध व स्वाद गैस्ट्रिक स्राव को बेगस नर्व द्वारा उत्तेजित करता है ।

हयूमोरल:

भोजन की पाइलोरिक एन्ट्रम में उपस्थिति व वेगस का उत्तेजन पाइलोरिक गैस्ट्रिक म्यूकोसा से एक हारमोन का स्राव कराता है जिसे गैस्ट्रिन कहते हैं । गैस्ट्रिन रक्त में जाकर पेराइटल सेलों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल निकालने के लिए उत्तेजित करता है । गैस्ट्रिक एसिड का स्राव डर, मितली व पाइलोरिक एन्ट्रम में अधिक अम्ल होने से और डियोडिनम में वसा के होने से कम हो जाता है ।

छोटी आंत भोजन के पाचन व अवशोषण में मुख्य रूप से भाग लेती हे । आमाशय से कुछ पचा हुआ भोजन डियोडिनम बे पहुंचता है जिसे काइम कहते हैं । छोटी आंत में काइम में पहले पैन्क्रियाटिक जूस व पित्तरस (बाइल) और फिर सक्कस इन्टेरिकस मिल जाता है । पैन्क्रियाटिक जूस में एमाइलेज, प्रोटीन तोड़ने वाले एन्जाइम, लवण व बाइकार्बोनेट आयन पाये जाते हैं ।

 पैन्क्रियाटिक जूस के कार्य:

i. पैन्क्रियाटिक जूस में बाइकार्बोनेट आयन अधिक मात्रा में पाये जाते हैं जो गैस्ट्रिक जूस के अम्लीय प्रभाव को समाप्त करते हैं तथा हल्का क्षरीय माध्यम पैदा करते हैं जो पैन्क्रियाटिक जूस के लिए उपयुक्त है ।

ii. एमाइलेज स्टार्च को माल्टोज में तोड़ते हैं ।

iii. लाइपेज न्यूट्रलवसा को ग्लिसराल व फैट्‌टी एसिडों में तोड़ता है ।

iv. ट्रिपसिनोजन इन्टरोकाइनेज से मिलकर कार्यशील ट्रिप्सिन में परिवर्तित हो जाता है जो प्रोटीन प्रेटिओजो व पेप्टोनो को पेप्टइड तथा एमिनों एसिडों में तोड़ देता है ।

v. काइमो ट्रिपसिनोजन ट्रिप्सिन द्वारा अपने कार्यशील रूप काइमोट्रिप्सिन में बदलकर प्रोटीन को छोटे पालीपेप्टाइडों में तोड़ता है । यह दूध को भी जमाता है ।

vi. कार्बाक्सीपेप्टाइड पेप्टाइडों को एमीनों एसिडों में तोड़ते हैं ।

पैन्क्रियाटिक जूस के स्राव का नियंत्रण:

इसका नियंत्रण नर्वस तथा ह्यूमोरल दोनों विधियों से होता है । खाने के तुरंत बाद वेगस द्वारा जाने वाली तरंगें इसका स्राव कराती हैं । एसिड काइम डियोडिनम या जेजुनम में पहुंचकर सिक्रिटिन व पैन्क्रियोजाइमिन हारमोनों के स्राव को उत्तेजित करता है जो रक्त संचार में जाकर पेन्क्रियाज को जूस के स्राव के लिए उत्तेजित करते हैं ।

पित्त रस:

पित्त का स्राव लगातार यकृत द्वारा किया जाता है जो पित्ताशय में गाढ़ा होता है क्योंकि स्फिन्कटर ऑफ ओडई प्राय: बन्द होता है । पित्त में पानी, लवण, म्यूकस, बाइल लवण, बाइलपिगमेन्ट व कोलेस्टरोल होते हैं । बाइल लवणों के मुख्य कार्य सर्फेस टेन्शन घटाकार बसा का इमल्सीकरण करना है ।

यह वसा, फैट्‌टी एसिडों, ग्लिसराल व वसा में घुलनशील विटामिनों के अवशोषण में मदद करता है । वाइल पिगमेन्ट पित्त को रंग प्रदान करते हैं । पित्त का स्राव भी नर्वस व ह्यूमोरल विधियों से नियंत्रित होता है । डियोडिनम में वसा तथा मांस की उपस्थिति एक हारमोन कोलीसिस्टोकायनिन के स्राव को उत्तेजित करते हैं ।

यह पैन्क्रियाजाइमिन के समान होता है । वेगस नर्व स्फिन्क्टर ऑफ ओडाई को ढीला करती है तथा पित्ताशय को कान्ट्रेक्ट कराती है । सक्कस इन्टेरिकस छोटी आंत की ग्रन्थियों से निकलता है । इसमें पानी, लवण, बाइकार्बोनेट आयन व एन्जाइम होते हैं । ये एन्जाइम कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन व वसा को इनके सरल रूपों में तोड़ते हैं ।

छोटी आंत की मूवमेंट तीन प्रकार की होती है:

(1) सेगमेन्टेशन |

(2) पेन्डुता |

(3) तथा पेरिसटेलसिस ।

1. सेगमेन्टेशन:

ये भोजन के मिश्रण, अवशोषण व आगे ठेलने में मदद करते है । सेग्मेन्टेशन में अरेखीय पेशियों के वृत्ताकार कान्ट्रेक्शन होते हैं जो आंत में स्थित पदार्थो को सेग्मेन्टों में बांट देते हैं । ये कान्ट्रैक्सन फिर ढीले होते हैं तथा नये कान्ट्रैक्शन इनके बीच फिर बनते हैं । सेग्मेन्टेशन की दर डियाडिनम से सबसे अधिक होती है । इसका नियंत्रण छोटी आंत की दीवार में स्थित नर्व प्लेक्सस द्वारा होता है । इस प्रकार की तरंगे भोजन में इन्टेस्टिनल जूस के मिलन में बहुत मदद करते हैं ।

2. पेन्ड़ुलर मूवमेन्ट:

आंत में उपस्थित पदार्थो को म्यूकोसा की सतह पर आगे-पीछे करते हैं । इस प्रकार की गति, भोजन के जूसों से मिलने व अवशोषण में मदद करती हैं ।

3. पेरिस्टैलसिस:

छोटी आंत में तेजी से होने वाली गति आंत में स्थित पदार्थों को इलियोसीकल वाल्व की ओर ले जाती है ।

छोटी आंत में भोजन का अवशोषण:

छोटी आंत में उपस्थित विलाई इसके सरफेस एरिया को बहुत बढ़ा देते हैं जिससे भोजन का अवशोषण अच्छी प्रकार से हो सकता है ।

बड़ी आंत:

छोटी  आंत में स्थित पदार्थ द्रव के रूप में होते हैं जो इलियोसीकल वाल्व द्वारा गुजर कर सीकम और कोलन में पहुंचते हैं । केवल लगभग 100 मिली॰ पानी ही रेक्टम में प्रतिदिन पहुंचता है, बाकी सीकम व असेण्डिंग कोलन में सोख लिया जाता है ।

मास पेरिस्टेल्सिस कोलन के पदार्थो को रेक्टम की ओर ढकेलती है । यह प्राय: होती रहती है । पर खाने के पश्चात अधिक तीव्रता से होती है इसे गेस्ट्रोकोलिक रिफलेक्स कहते हैं ।

मलत्याग:

रेक्टम में मल की उपस्थिति मलत्याग की इच्छा पैदा करती है । मल रेक्टम में इकट्‌ठा होता है । रेक्टम की दीवारों में होने वाले खिचाव से इसमें स्थित सेन्सरी तन्त्रिकायें ऐनल स्फिन्कटर को ढीला करवाती है तथा उदर व डायाफ्राम को सिकोड़ती हैं जिससे उदर का दाब बढ़ जाता है ।

डिस्टल कोलन व रेक्टम में लम्बाई में स्थित (लोगींट्रयूड़ीनल) पेशियां खिंचकर इसकी लम्बाई कम करती हैं तथा इनके छिद्र को सीधा कर देती हैं । लीवेटर एनाई पेशी सिकुड़कर गुदा को ऊपर खींचती है तथा मल को बाहर निकालती है । जन्म के पहले वर्ष मलत्याग रिफलेक्स होता है जो बाद में ऐच्छिक नियंत्रण वाला हो जाता है ।

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