Read this article in Hindi to learn about the functions of excretory system in human body.
शरीर के लिए बेकार पदार्थों को फेफड़ों, त्वचा तथा उत्सर्जन तन्त्र द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है । प्राय: उत्सर्जन तन्त्र का प्रयोग मूत्र विसर्जन तन्त्र (URINARY SYSTEM) के लिये किया जाता है क्योंकि कार्बन डाई आक्साइड के अलावा बाकी सभी बेकार पदार्थ मूत्र के साथ ही विसर्जित किये जाते हैं ।
इन पदार्थों में यूरिया, यूरिक एसिड, क्रियटिनिन, प्यूरीन पदार्थ, कीटोन वाडी तथा दवाओं व हारमोनों के बचे हुये भाग मुख्य है । रक्त में यूरिया की सामान्य मात्रा 30 मिली ग्राम प्रति 100 मिली॰ होती है और यूरिक एसिड 2-3 मिग्रा/100 मिली॰ । इन दोनों की रक्त में मात्रा गुर्दे के कार्य न करने (Renal failure) की स्थिति में बहुत अधिक बढ़ जाती है । मूत्र संस्थान के अंतर्गत एक जोड़ा गुर्दे यूरेटर और मूत्राशय (Uninary Bladder) आते हैं ।
गुर्दे:
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बारहवीं थोरेसिक वर्टिब्रा से लेकर तृतीय लम्बर वर्टिब्रा के लेविल पर वर्टिब्रल कालम के दोनों ओर दोनों गुर्दे स्थित होते हैं । प्रत्येक गुर्दे का भार लगभग 150 ग्राम होता है तथा आकार सेम के आकार की 10-12 से॰मी॰ लम्बी व 5-6 से॰मी॰ चौडी होती है । (चित्र 3.45)
कार्यविधि:
गुर्दे की बेसिक फन्कशनल यूनिट (Basic functional units) नेफ्रान (Nephron) होती है जो प्रत्येक गुर्दे में लगभग 10 लाख होते हैं । प्रत्येक नेफ्रान में कैपलरियों का एक गुच्छा होता है जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं । जो नली के बन्द सिरे की ओर स्थित रहकर मालपिजियन कारपसल (Mal-pighian corpuscle) बनाती है जो नेफ़्रान का पहला भाग है (चित्र 3.46) । नेफ्रान के निम्न भागों को चित्र 3.46 में दर्शाया गया है ।
गुर्दे और सुप्रारीनल एडीपोस कैप्सूल से ढके रहते हैं । दांया गुर्दा मध्य की ओर डियोडिनम तथा नीचे दांये कोलोनिक (Colonicflexure) फ्लेक्सर से संबंधित होता है । बांया गुर्दा बांये कोलोनिक फ्लेक्सर और पैन्क्रियाज की टेल से सम्बन्धित होता है । (चित्र 3.46) प्रत्येक गुर्दे के एन्टीरियर और पोस्टीरियर सतहें, मीडियल व लैट्रल (Lateral) मार्जिनें (margin) तथा ऊपरी व निचले सिरे (poles) होते हैं ।
मीडियल साइड पर दोनों गुर्दी में दोनों सिरों के मध्य रीनल हाइलम होता है जिससे रीनल धमनी अन्दर आती है व यूरेटर और शिरा बाहर जाती है । यूरिनरी चैनल का ऊपरी सिरा रीनल पेल्विस कहलाता है जिसके ऊपर व पीछे से रीनल वेसल जाती हैं ।
रीनल पेल्विस का ऊपरी भाग दो या अधिक मेजर कैलेक्सों के मिलने से बनता है तथा निचला भाग यूरेटर में खुलता है । वास्तव में रीनल पेल्विस को यूरेटर का ऊपरी फैला हुआ भाग माना जा सकता है । गुर्दे को काटने पर इसके दो भाग बाहरी कार्टेक्स तथा अन्दर का मेडूला दिखायी पड़ता है । कार्टेक्स में ग्लोमेरूलाई व कन्वूलेटेड ट्यूव्यूल स्थित होते हैं, जबकि मेडूला में कलेक्टिंग डक्ट होती हैं । मेडूला में ही रीनल पिरैमिड भी स्थित होते हैं जिनका आधार कार्टेक्स की तरफ तथा पतला पैपिला (Papilla) वाला भाग माइनर कैलक्स पर स्थित होता है ।
माइनर कैलेक्स जो संख्या में 13-14 होते हैं मिलकर 2-3 मेजर कैलेक्स बनाते हैं, जो जुड़कर रीनल पेल्विस बनाते हैं । गुर्दे को रक्त रीनल धमनी द्वारा, जो महाधमनी से निकलती है, पहुंचाता है । रीनल शिरायें (Renal veins), जो रीनल धमनी के ठीक आगे स्थित होती है, गुर्दे से रक्त इन्फीरियर महाशिरा में ले जाती है । गुर्दे मूत्र बनाने के अलावा अन्य काम भी करते हैं ।
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1. पानी और इलैक्ट्रोलाइटों की मात्रा का सन्तुलन ।
2. रक्त का PH बनाये रखने का कार्य ।
3. विटामिन डी को इसके कार्यशील रूप 1-25 डाइहाइड्रोकोली कैल्सीफेराल में परिवर्तन जो ऑख मे कैलिसयम के अवशोषण को बढ़ाता है । अत: गुर्दे रक्त में कैल्सियम की मात्रा निर्धारित रखते हैं ।
4. रेनिन का निर्माण:
रेनिन का स्राव सोडियम की मात्रा या रक्त चाप कम होने पर होता है । रेनिन रक्त में उपस्थित एन्जियोटेन्सिनोजन को एन्जिटेन्सिन-1 में, जो एन्जियोटेन्सिन-2 में परिवर्तित होकर एड्रिनल कार्टेक्स से एल्डोस्टेरान के स्राव को बढ़ाता है । एल्डोस्टेरान गुर्दे में सोडियम के अवशोषण को बढ़ाता है । जिससे रक्त का आयतन और रक्त दाब बढ़ता है ।
5. गुर्दे इरेथ्रोपोयटिन (Erythropoetin) का निर्माण करते हैं जो अस्थिमज्जा को लाल रक्त कणिकाओं के अधिक निर्माण हेतु उत्तेजित करता है ।
मूत्र का निर्माण एवं विसर्जन:
सामान्य अवस्था में प्रतिदिन लगभग डेढ़ लीटर मूत्र का निर्माण होता है । प्रतिदिन मूत्र की मात्रा में परिवर्तन मौसम, ली गई द्रव की मात्रा व पानी की अन्य स्रोतों से हुई हानि पर निर्भर करती है ।
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यूरेटर:
गुर्दी द्वारा बना हुआ मूत्र, मूत्राशय तक यूरेटरों द्वारा पहुंचता है । यह लगभग 25 से॰मी॰ लम्बी नलियां होती हैं जो गुर्दे की पेल्विस से मूत्राशय के पिछले भाग तक फैली होती हैं । इसकी दीवार तीन पतों वाली होती है ।
1. आन्तरिक म्यूकस सतह जो ट्रान्जीसनल इपीथीलियम से बनी होती है ।
2. मध्य की मस्कुलर सतह, जो बाहरी सरकुलर तथा अन्दर लन्गीट्रयूडिनल पेशियों से बनी होती है ।
3. बाहरी फाइब्रस सतह, जो बाहरी फाइब्रस रीनल कैप्सूल से मिल जाती है ।
मूत्राशय:
यह खिंच सकने वाली मूत्र को एकत्रित करने वाली थैली है जो 200-300 मिली॰ मूत्र इकट्ठा कर सकती है । यह सिम्फाइसिस प्यूविस के ठीक पीछे स्थित होती है । इसकी अगली सतह पेराइटल पेरीटोनियम से ढकी रहती है (चित्र 3.50) । पुरुषों में इसके पीछे रेक्टम, वासडिफरेन्स और सेमिनल वेसिकिल स्थित होते है, तथा मूत्राशय की गर्दन पौस्टेट ग्रन्थि पर स्थित होता है (चित्र 3.51) ।
औरतों में इसके ऊपर गर्भाशय तथा पीछे वेजाइना और सर्विक्स स्थित होती है (चित्र 3.56) । मूत्राशय की फ्लोर में स्थित त्रिकोण में तीन छेद होते हैं । दो यूरेटरों के व निचले सिरे पर यूरिथ्रा का छिद्र । मूत्राशय की आन्तरिक सतह म्यूकस मेम्ब्रेन से ढकी रहती है जो खोली मूत्राशय में पर्ते (Rugae) बनाती है ।
पेशियों की तीन पर्त, जिन्हें डेट्रसर पेशी कहते हैं, मूत्राशय की मध्य दीवार बनाती है । बाहरी सतह सीरस लेयर कहलाती है जो आगे की सतह पर पेरिटोनियम से ढकी रहती है । स्मूथ मसल व रूगी की वजह से इसके आन्तरिक दाव के बिना अधिक परिवर्तन किये हुये इसका आयतन परिवर्तित किया जा सकता है तथा 200 मिली॰ तक मूत्र इकट्ठा किया जा सकता है ।
रक्त प्रवाह:
इन्टरनल इलायक धमनी की बाचें रक्त पहुंचाती हैं तथा शिरायें इन्टरनल इलायक शिराओं में खुलती हें ।
तन्त्रिका तन्त्र:
सिम्पैथेटिक व पैरासिम्पैथेटिक दोनों तन्तु वाडी (Detrusor) व इन्टरनल थूरिथ्रल सिफन्कटर को सप्लाई करते हैं ।
कार्य:
मुख्य कार्य मूत्र का इकट्ठा करना, व शरीर से बाहर निकालना है ।
यूरिथ्रा:
यह मूत्राशय के निचले भाग से शुरू होकर शरीर से बाहर खुलने वाली नली है । यह पुरूषों में शिश्न के अगले सिरे पर तथा महिलाओं मे वेजानल छिद्र के आगे एक छोटे छिद्र के रूप में खुलती है । यूरिथ्रा में दो स्किन्कटर इन्टरनल व इक्सर्टनल स्फिन्क्टर होते हैं ।
पुरुषों में थुरिथ्रा लगभग 20 सेमी॰ लम्बी होती है तथा इसको प्रोस्टेटिक, मेम्ब्रेनस तथा पेनाइल यूरिथ्रा में बांटा जाता है, जबकि महिलाओं में यह केवल 4 सेमी॰ लम्बी होती है । यह इन्टरनल यूरिथ्रल छिद्र से शुरू होकर नीचे तथा आगे की ओर बढ्कर वेजाइना की अगली दीवार के साथ वेजाइना के आगे व क्लाइटोरस के 2 सेमी॰ नीचे एक छिद्र के रूप में शरीर से बाहर खुलती है । इस छिद्र को यूरिनरी मीट्स कहते हैं । यूरिथ्रा म्यूकस मेम्ब्रेन से ढकी होती है ।
मूत्र त्याग:
यह एक इन्वोलन्टरी रिफलक्स है जो वोलन्टरी कन्ट्रोल से जुड़ा है । जब मूत्राशय मूत्र से भरना शुरू होता है तो पहले इसका दाब अधिक हो जाता है तो इसकी दीवार में स्थित स्ट्रेच रिसेप्टर स्टीमुलेट हो जाते हैं । यहां से जाने वाली तरंगें पैरासिम्पैथेटिक मिक्चयूरेटिंग रिफलेक्स सेन्टर को उत्तेजित करते हैं जिससे मूत्राशय का रिफलेक्स कान्ट्रेक्सन व स्फिन्कन्टरों का रिलेक्सेसन हो जाता है व मूत्र बाहर निकाल दिया जाता है ।
यहां तक कोई कान्शियस सेन्सेशन नहीं होता है पर जब मूत्राशय में मूत्र की मात्रा 500 मिली॰ हो जाता है तो यह दुखदायी हो जाता है । इसके अलावा सेरेब्रल कार्टेक्स का इक्सटर्नल स्फिन्कटर के ऊपर वोलेन्टरी कन्ट्रोल होता है ।
स्पानल कार्ड या सेव्रव्रल इन्जरी होने पर यह ऐक्षिक कन्ट्रोल समाप्त हो जाता है तथा इन्कान्टिनेन्स (Incontinence) हो जाती है । कुछ स्थितियों जैसे उदर की शल्य क्रिया के पश्चात रोगी मूत्राशय में अधिक मूत्र होने पर भी आ त्याग नहीं कर पाता है (Retention of urine) ।
इस स्थिति में कैथेटर द्वारा मूत्र बाहर निकालने की आवश्यकता पड़ सकती हैं इसके अतिरिक्त एक अन्य स्थिति जिसे रीनल फेल्योर (Renal Failure) कहते हैं, में भी रोगी मूत्र त्याग नहीं कर पाता, पर कैथेटर से इसमें कोई सहायता नहीं मिलती क्योंकि गुर्दे मूत्र का निर्माण ही नही कर पाते और मूत्राशय खाली होता है ।